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हस्तशिल्प (कला एवं संस्कृति)

बस्तर शिल्प

भारत के आदिवासी कलाओं में बस्तर की आदिवासी परंपरागत कला कौशल प्रशिद्ध है। जनजातीय कलाओं में प्रमुख बस्तर कला है जो भारत के बस्तर-क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा प्रचलित है और अपने अद्वितीय कलाकृतियों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है।  बस्तर के आदिवाशी समुदाय अपनी इस दुर्लभ  कला को पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित करते आ रहे है, परन्तु प्रचार के आभाव में यह केवल उनके कुटीरों से साप्ताहिक हाट बाज़ारों तक ही सीमित है। उनकी यह कला बिना किसी उत्कृष्ट मशीनों के उपयोग के रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले उपक्रमों से ही बनाये जाते हैं। बस्तर के कला कौशल को मुख्य रूप से काष्ठ कला, बाँस कला, मृदा कला, धातु कला में विभाजित किया जा सकता है। काष्ठ कला में मुख्य रूप से लकड़ी के फर्नीचरों में बस्तर की संस्कृति, त्योहारों, जीव जंतुओं, देवी देवताओं की कलाकृति बनाना, देवी देवताओं की मूर्तियाँ, साज सज्जा की कलाकृतियाँ बनायी जाती है। बांस कला में बांस की शीखों से कुर्सियां, बैठक, टेबल, टोकरियाँ, चटाई, और घरेलु साज सज्जा की सामग्रिया बनायीं जाती है। मृदा कला में , देवी देवताओं की मूर्तियाँ, सजावटी बर्तन, फूलदान, गमले, और घरेलु साज-सज्जा की सामग्रियां  बनायी जाती है। धातु कला में ताम्बे और टिन मिश्रित धातु के ढलाई किये हुए कलाकृतियाँ बनायीं जाती है, जिसमे मुख्य रूप से देवी देवताओं की मूर्तियाँ, पूजा पात्र, जनजातीय संस्कृति की मूर्तियाँ, और घरेलु साज-सज्जा की सामग्रियां बनायीं जाती है।

लकड़ी पर कलाकृति

बस्तर  जिला वनों से ढका हुआ है। यह भारत में  उपस्थित जनजातिय  समुदाय का बड़ा हिस्सा यहाँ निवासरत है | बस्तर शिल्प की दीवार दुनिया भर में कला उत्साही और connoisseur का ध्यान आकर्षित करते हैं। बस्तर कलाकृतियों आमतौर पर जनजातीय समुदाय की ग्रामीण जीवनशैली को दर्शाती है|

बांसकला

आदिवासी निश्चित रूप से भारत के पहली धातु स्मिथ थे और वे अभी भी प्राचीन अभ्यास के साथ जारी हैं। ये जनजातीय कलाकार धातु की पुरानी प्रक्रियाओं के माध्यम से, जीवन, प्रकृति और देवताओं के अनूठे दृश्य को लोहे में उकेरते हैं । उनकी प्रक्रिया सरल है – इसमें मूल रूप से धातु को फोर्जिंग और हथौड़ा द्वारा रूप देना है।

बस्तर अंचल के हस्तशिल्प, चाहे वे आदिवासी हस्तशिल्प हों या लोक हस्तशिल्प, दुनिया-भर के कलाप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट करने में सक्षम रहे हैं। इसका मुख्य कारण  यह है कि , इनमे इस आदिवासी बहुल अंचल की आदिम संस्कृति की सोंधी महक बसी रही है। यह शिल्प-परंपरा और उसकी तकनीक बहुत पुरानी है।

देवी त्यौहार , तीज त्यौहार, चैतराई, आमाखानी, अकती, बीज खुटनी, हरियाली, इतवारी, नयाखाई आदि बस्तर के आदिवासियों के मुख्य त्यौहार हैं। आदिवासी समुदाय एकजुट होकर बूढ़ादेव, ठाकुर दाई, रानीमाता, शीतला, रावदेवता, भैंसासुर, मावली, अंगारमोती, डोंगर, बगरूम आदि देवी देवताओं को पान फूल, नारियल, चावल, शराब, मुर्गा, बकरा, भेड़, गाय, भैंस, आदि देकर अपने-अपने गांव-परिवार की खुशहाली के लिए मन्नत मांगते है।